हां मैं स्त्री हूं
हरहाल में इल्जाम
इस समाज के नियमों से बंधी हूं
इन नियमों में पली बढ़ी हूं
हर रोज हमें हमारी सीमाएं समझाई जाती हैं
कभी डरा कर कभी मार कर,
हर हदें याद दिलायी जाती हैं
कभी राह चलता दुर-व्यवहार करता है
तो कभी घर के अन्दर कोई
रिश्तेदार दुराचार करता है
हर बात की एक ही सजा़ ,
बांध दो किसी खूंटे से या
इज्ज़त तार-तार कर दी जाती है
हरहाल में इल्जाम
एक स्त्री पर थोपा जाता है
बचपन में बचपना नहीं,
जवानी में सपने नहीं,
ससुराल में इज्ज़त नहीं,
बुढ़ापे में लाठी नहीं
हर उम्र में कोशी जाती है
कभी दहेज के लिए मारी पीटी,
कभी जलाई जाती है
जहां इस समाज में स्त्री को पूजा जाता है
वहां स्त्री की अस्मिता को पैरों तले रौंदा जाता है
यहां बेटी को कोख में ही मार दिया जाता है
आज के समाज का आईना तो देखिए
फेसबुक पर हैप्पी ओमेन डे लिखते हैं
अगले दिन उसी स्त्री का अपमान करते है
मदर डे पर लव यू मां लिखते हैं
और उसी मां की कद्र नहीं करते है
अरे कोई समझाओ इन समाज के ठेकेदारों को
देख लो खुद का दामन
लहु से रंगा पड़ा हुआ है
लगाते हो स्त्री के दामन पर दाग़
खुद के दामन दागों से भरा पड़ा हुआ है
कहां है संवेदना
कहां है आंखों में शर्म
स्त्री के कपड़ों पर हैं नज़र
कहां तुम्हारी आंखों में है पर्दा
स्त्री को नहीं
बदलना है तो अपना नजरिया बदलो
सीख दो अपने बेटो को
करे स्त्री का सम्मान
अब स्त्री को उनकी सीमाएं ना याद दिलाये
अपने बेटो को सीमाओं में रहना सिखाए।।
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